गंगा की धरती पर उत्पत्ति 

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गंगा नदी हमारे देश की सबसे पवित्र नदी है | हमारे भारत वर्ष में गंगा के प्रति लोगों के मन में बहुत श्रद्धा है, लोग गंगा को भगवान की तरह पूजनीय मानते हैं| 

लोग गंगा के जल को अपने घर में रखते हैं और हर पवित्र कार्य में गंगा जल का प्रयोग करते हैं| 

गंगा का पानी इतना पवित्र है कि ये सालों तक रखे रहने के बावजूद सड़ता नहीं है | गंगा केवल नदी ही नहीं, एक संस्कृति है । 

गंगा नदी के तट पर अनेक पवित्र तीर्थों का निवास है । अत: इस नदी में पूरे वर्ष जल रहता है । इस सदानीरा नदी का जल करोड़ों लोगों की प्यास बुझाता है । 

करोड़ों पशु-पक्षी इसके जल पर निर्भर हैं ।  हिन्दू लोग गंगा जल से पूजा-पाठ करते हैं । 

गंगा तट पर बिखरी चिकनी मिट्‌टी ‘ मृतिका ‘ से दंतमंजन बनाए जाते हैं । लोग इससे तिलक करते हैं ।
 
गंगा को स्वर्ग की नदी माना जाता है | लोग गंगा में नहाकर अपने पापों का प्राश्चित करते हैं| 

भारत में लोगों में ये धारणा है कि गंगा में स्नान करने से सारे पाप धुल जाते हैं और इंसान पवित्र हो जाता है | 

गंगा भारत की सबसे बड़ी नदियों में से एक है और उत्तर भारत गंगा के क्षेत्र में ही विकसित हुआ है |  
 

गंगा नदी का इतिहास

 
ऐतिहासिक रूप से भी इस नदी का काफी महत्त्व है, क्योकि बहुत से राज्यों की राजधानी इसके तट पर बनी हुई है, जैसे की करा, कन्नौज, अलाहाबाद, कपिल्या, काशी, प्रयाग, हाजीपुर, पाटलिपुत्र, पटना, मुर्शिदाबाद, मुंगेर, बहरामपुर, भागलपुर, सप्तग्राम, नाबद्विप, ढाका और कोलकाता इत्यादि।
 
दूसरी सहस्त्राब्दी BC में हड़प्पा सभ्यता को ही भारतीय सभ्यता का दर्जा दिया गया था क्योकि उसी समय वे इंडस नदी के तट से गंगा नदी के तट पर स्थानांतरित होने लगे थे।
 
गंगा नदी भारत की सबसे लंबी नदी है। ऋग्वेद के प्रारंभिक वैदिक काल में इंडस और सरस्वती नदी ही मुख्य पवित्र नदियाँ हुआ करती थी, जबकि गंगा नदी को उस समय ज्यादा महत्त्व नही दिया गया था। 

लेकिन इसके बाद के तीनो वेदों में गंगा को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है और सबसे पवित्र नदी भी माना गया है। 

मौर्य साम्राज्य से लेकर मुग़ल साम्राज्य तक गंगा नदी का मैदान ही राज्य की सबसे शक्तिशाली जगहों में से एक बन चूका था।
 

गंगा नदी का इतिहास हिन्दू धर्म में गंगा नदी को देवी की तरह पूजा जाता है | गंगा का उद्गम गंगोत्री से होता है ( Ganga Aarti )

 
हमारे शास्त्रों का कहना है कि गंगा को धरती पर भागीरथ नाम का एक व्यक्ति लेकर आया था। 

वहीं, वेदों की रचना पश्चिम में हुई थी और वेद में गंगा का जिक्र नहीं था, बाद में गंगा का जिक्र वेदों में भी किया गया है।
 
इतिहास की एक पुस्तक ‘भारतगाथा’ है, जिसके लेखक सूर्यकान्त बाली हैं, वह बताते हैं कि भागीरथ जी अयोध्या के ही एक राजा थे।
 
अयोध्या के कई लोगों ने गंगा को धरती पर लाने का प्रयास किया था लेकिन भागीरथ जी इसमें पूरी तरह से सफल हो पाए थे। 

बता दें कि भागीरथ अयोध्या के इक्ष्वाकुंशी सम्राट थे। रघु कुल में बहुत ही प्रतापी राजाओं ने जन्म लिया है| राजा सागर उनमें से एक थे | 

उस समय राजा महाराजा अपना सामाज्य बढ़ाने के लिए अश्‍वमेघ यज्ञ किया करते थे | 

इसमें एक घोड़ा छोड़ा जाता था और वो घोड़ा जिस राज्य से होकर गुजर गया वो राज्य अश्‍वमेघ यज्ञ करने वाले राजा का हो जाता था और किसी ने बीच में वो घोड़ा पकड़ लिया और उसे अश्‍वमेघ यज्ञ करने वाले राजा से युद्ध करना होता था 
 
एक बार राजा सागर ने विशाल अश्‍वमेघ यज्ञ किया और अश्‍वमेघ का घोड़ा छोड़ दिया| 

राजा इंद्र को भय था कहीं अश्‍वमेघ घोड़ा अगर स्वर्ग में आ गया तो स्वर्ग पर राजा सागर का कब्जा हो जाएगा और राजा सागर से लड़ पाना कतई सम्भव नहीं है |
 
गंगा तट पर अनेक तीर्थ हैं । बनारस, काशी, प्रयाग ( इलाहाबाद). हरिद्वार आदि इनमें प्रमुख हैं । 

प्रयाग में गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम है । यहाँ प्रत्येक बारह वर्ष में कुंभ का विशाल मेला लगता है । 

लोग बड़ी संख्या में यहाँ आकर संगम स्नान करते हैं । बनारस और काशी में तो पूरे वर्ष ही भक्तों का समागम होता है । 

पवित्र तिथियों पर लोग निकटतम गंगा घाट पर जाकर स्नान करते हैं और पुण्य लाभ अर्जित करते हैं । विभिन्न अवसरों पर यहाँ मेले लगा करते हैं ।
 
गंगा अपना रूप बदलती रहती है । आरंभ में यह सिकुड़ी सी होती है पर मैदानी भागों में इसका तट चौड़ा हो जाता है ।
 
यही सोचकर इंद्र भेष बदल के गए और घोड़ा पकड़ कर चुपचाप कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया| कपिल मुनि उस समय ध्यान मुद्रा में थे| 

जब राजा सागर को पता चला कि उनका अश्‍वमेघ घोड़ा किसी से रोक लिया है तो उन्होंने गुस्से में अपने साठ हजार पुत्रों को भेजा कि किसने घोड़ा रोका है| 

काफी समय ढूंढने के बाद राजा सागर के पुत्रों ने कपिल मुनि के आश्रम में घोड़ा देख लिया और वो युद्ध करने के लिए आश्रम में घुस गए | 

आश्रम में हलचल सुनकर कपिल मुनि की आँख खुली तो राजा सागर के पुत्र उनपर घोड़ा रोकने का झूठा इल्जाम लगाने लगे | 

इससे क्रोधित होकर कपिल मुनि ने अग्नि से राजा सागर ने सारे पुत्रों को भस्म कर डाला | 

अब वो सारे साठ हजार पुत्र प्रेत योनि में भटकने लगे | उनकी आत्मा को शांति नहीं मिल पा रही थी| 

कई पीढ़ियों बाद रघुकुल में राजा भागीरथ का जन्म हुआ | 

उन्होंने प्रतिज्ञा की कि वह अपने पूर्वजों की आत्मा को शांति दिलाएंगे और यह तभी संभव था जब पूर्वजों की अस्थियों को गंगा के पानी से शुद्ध किया जाए | 
 
राजा भागीरथ ने भगवान विष्णु की घनघोर तपस्या की| 

कई सालों की तपस्या के बाद भगवान विष्णु ने राजा भागीरथ को दर्शन दिए तब भागीरथ ने स्वर्ग में रहने वाली गंगा को धरती पर लाने की प्रार्थना की| 

गंगा बड़े ही उग्र स्वभाव की थीं, वो बड़ी मुश्किल से धरती पर जाने के लिए राजी हुई | 

लेकिन एक समस्या थी कि गंगा का वेग इतना ज्यादा था कि अगर गंगा अपने वेग से स्वर्ग से धरती पर उतर आए तो धरती पाताल में समा जाती और चारों तरफ तूफान आ जाता | 

तब भगवान विष्णु ने शिव जी से प्रार्थना की कि वह गंगा को अपनी जटा में बांधकर उसे अपने वश में करें अन्यथा धरती का विनाश हो जाएगा | फिर जब गंगा अपने प्रचण्ड वेग से धरती पर उतरीं तो भयंकर गर्जना हुआ, मेघ फट गए चारों तरफ तूफान जैसा छा गया| 

तब भगवान शिव ने गंगा को अपनी जटा में बांधा और अपनी जटा से एक पतली धार के रूप में गंगा को धरती पर जाने दिया | 

इस तरह गंगा धरती पर अवतरित हुईं और उन्हें भागीरथी भी कहा जाता है |
 
पौराणिक कथाओं की मानें तो गंगा जी भगवान विष्णु के पैरों के नखों से निकली हैं और ब्रह्मा जी के कमंडल में रहती हैं। 

वहीं, स्वर्ग में गंगा मन्दाकिनी के नाम से भी जानी जाती हैं। स्वर्ग से धरती पर मां गंगा को लाने का श्रेय अयोध्या के इक्ष्वाकु वंशीय राजा भगीरथ को दिया जाता है।
 
यही है वह जिन्होंने कपिल मुनि के श्राप से भस्म होकर अपने साठ हजार पूर्वजों की भटकती आत्माओं की मुक्ति के लिए ब्रह्मा जी की घोर तपस्या कर मां गंगा को पृथ्वी पर लाए थे। 

जान लें कि धरती पर उतरने से पहले गंगा भगवान शिव की जटाओं में ही समां गईं थीं।
 
भगवान शिव की जटाओं से निकलकर गंगा की अविरल धारा भगीरथ के पीछे-पीछे चलते हुए, बंगाल के गंगा सागर संगम पर स्थित कपिल मुनि के आश्रम में आईं।
 
यहाँ पर कपिल मुनि के श्राप से जलकर भस्म हो चुके भगीरथ के पूर्वजों की साठ हजार राख की ढेरियां ज्यों ही गंगा के पवित्र जल में डूबीं, त्यों ही भूत बनकर भटक रहे भगीरथ के पूर्वजों का उद्धार हो गया और उन्हें प्रेत योनि से छुटकारा मिल गया था।
 
प्रसिद्ध धार्मिक नगरी काशी (अब वाराणसी) गंगा के तट पर ही सुशोभित है। कशा यानी चमकने वाला से इसका नाम काशी रखा गया होगा, क्योंकि ‘वरुणा’ और ‘असी’ नामक दो नदियों के आधार पर ही आज इसे वाराणसी संज्ञा प्रदान की गई है। 

बनारस भी शायद उसी का बिगड़ा रूप है। 4,800 फुट की ऊंचाई पर भटवारी में शेषनाग का छोटा सा भग्नावस्था में मंदिर है। 

उनके चरणों से एक छोटी सी नदी नवला निकलती है और यहीं गंगा में विलय हो जाती है। इस स्थान को भास्करपुरी कहा जाता है। 

यह भी कहा जाता है कि सूर्य ने शिव की उपासना यहीं की थी। श्री कंठ शिखर से क्षीर गंगा का निकास बताया जाता है। 

दक्षिण दिशा में हेमकूट पर्वत के पास उत्तरवाहिनी केदारगंगा भगीरथी में मिलती है जहां से भगीरथी रौद्र रूप लिए तीन धाराओं में बहकर ब्रह्मकुंड में गिर जाती है। 

यहां प्रवाह काफी तीव्र और उन्मत्त है। ब्रह्मकुंड के पास ही सूर्य कुंड और गौरी कुंड हैं यहां पर शिवजी ने भगीरथी को अपनी जटाओं में बांध लिया था। 

गौरी कुंड में जिस शिला पर भगीरथी गिरती है, उस शिला को शिवलिंग की मान्यता है। कहते हैं कि भगीरथी की गति कितनी ही तीव्र हो जाये यह शिला यहीं रहती है, उस पर चढ़कर ही जल आगे बढ़ता है। 
 
महाभारत में इसे त्रिपयागामिनी, बाल्मीकि रामायण में त्रिपथगा और रघुवंश और शाकुन्तल में जिस्नोता कहा गया है। 

विष्णु-धर्मोत्तरपुराण में गंगा को त्रलोवय व्यापिनी कहा गया है। शिवस्वरोदय में इड़ा नदी को गंगा कहा गया है। पुराणों में गंगा को लोकमाता कहा गया है।
 
बाल्मीकी रामायण के अनुसार गंगा की उत्पत्ति हिमालय की पत्नी मैना से बतायी गई है। गंगा उमा से ज्येष्ठ थी। 

पूर्वजों के उद्धार के लिए भगीरथ ने ब्रह्माजी को प्रसन्न करने के लिए अत्यधिक कठोर तप किया। 

ब्रह्माजी ने भगीरथ को शंकरजी की आराधना के लिए कहा, क्योंकि गंगा के वेग को शंकरजी ही धारण कर सकते थे। 

एक वर्ष तक गंगा शंकरजी की जटाओं में ही भटकती रही। अन्त में शंकर ने एक जटा से गंगा धारा को छोड़ा। 

देव नदी गंगा भगीरथ के पीछे-पीछे कपिल मुनि के आश्रम गयी और उन्होंने सागर पुत्रों का उद्धार किया।
 
देवी भागवत पुराण के अनुसार गंगा, लक्ष्मी, सरस्वती तीनों विष्णु की पत्नियां थीं। 

आपसी कलह के कारण सरस्वती और गंगा को पृथ्वी पर नदी के रूप में आना पड़ा।
 
श्रीमद्भागवत के पंचम स्कन्धानुसार राजा बलि से तीन पग पृथ्वी नापने के समय भगवान वामन का बांया चरण ब्रह्माण्ड के ऊपर चला गया, वहां ब्रह्माजी के द्वारा भगवान के पाद प्रच्छालन के बाद उनके कमण्डल में जो जलधारा स्थित थी वह उनके चरण-स्पर्श से पवित्र होकर ध्रुवलोक में गिरी और चार भागों में विभक्त हो गयी।
 
मंदाकिनी नदी के सिरे पर 11,750 फुट की ऊंचाई पर गढ़वाल जिले में बसा पावन केदारनाथ सुंदर प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर प्रमुख पर्यटक स्थल है। 

लगभग 2 कि.मी. लम्बी व आधा कि.मी. चौड़ी यह बर्फ की घाटी ऊंचे पर्वतों से घिरी रंगभूमि पशु-पक्षी विहार जैसा लगता है। यहां पर हिमगिरी के भव्य दृश्य रोमांचित कर देते हैं।
 
बद्रीनाथ की तरह केदारनाथ का मौसम भी वर्ष भर ठण्डा रहता है। शीत ऋतु में तो अनवरत हिमपात रहता है। 

मई-जून, सितम्बर-अक्तूबर के महीने ही यहां पर्यटन के अनुकूल हैं। गौरी कुण्ड पहुंचने के बाद आगे 14 कि.मी. की दूरी पैदल पार करनी पड़ती है।
 
गोविन्दघाट से आगे देवों की वाटिका के अन्दर पुष्पवती नामक नदी बहती है। 

हिमानियों से अनेक फूटी हुई धाराओं और झरनों से पुष्पवती के जल की अभिवृद्धि होती है जो घंघरिया में लक्ष्मण गंगा में जाकर समाहित हो जाती है। 

लक्ष्मण गंगा, घंघरिया से 5 कि.मी. ऊपर लोकपाल झील से निकली है।
 
भारतीय संस्कृति की गंगा का जन्म कैसे भी हुआ हो, पर मनुष्य की पहली बस्ती उसकी तट पर आबाद हुई। 

पामीर के पठारों में गौरवर्णीय सुनहरे बालों वाली आर्य जाति का इष्ट देवता था वरुण। 

इस जाति की विशेषता थी अमूर्त का चिंतन और खोज। अग्निहोत्र के प्रचलन वाली इस जाति के अनुयायी नरबलि की पद्धति को अपनाते थे। 

उनके नेता राजा पुरूरवा ने गंगा संगम पर एक बस्ती बसायी जिसे प्रतिष्ठान का नाम दिया उसी के समय में एक और गंधर्व नामक दोनों शाखाएं मीलकर एक हो गई। तभी भारतीय संस्कृति की नींव पड़ी। 

एलों ने नरबलि छोड़कर अग्निहोत्र को अपना लिया। गंगा की पावन धारा में स्नान कर वह पवित्र हो गये। 

ब्रह्म ऋषि वशिष्ठ से संघर्ष करने वाले विश्वामित्र की पुत्री शकुन्तला का विवाह चन्द्रवंशी राजा दुष्यंत से हुआ और उनके पुत्र भरत ने पहली बार इस देश को भारत नाम देकर एक सूत्र में बांधा। 

सूर्यवंशी भगीरथ ने गंगा के आदि और अंत की खोज की थी। गंगा के तट काशी में जैन तीर्थकंर पार्श्वनाथ का प्रादुर्भाव हुआ तो वहीं सारनाथ में तथागत बुद्ध ने पहला उपदेश दिया। 

पाटलिपुत्र में नंद साम्राज्य का उदय हुआ तो चाणक्य ने अर्थशास्त्र की रचना एवं सम्राट चन्द्रगुप्त के साम्राज्य का निर्माण किया। 

सम्राट अशोक ने इसी पाटलिपुत्र में अहिंसा और प्रेम के आदेश प्रसारित किए। 

फिर मौर्यों के बाद आए शुंग तथा तब अश्वमेध यज्ञ होने लगे। शास्त्र और स्मृतियां रची गईं। 

रामायण और महाभारत इसी काल में पूर्ण हुए। 

महाभाष्यकार पतंजलि भी इसी समय हुए नागों के भारशिव राजवंश ने गंगा को अपना राज्य चिन्ह बनाया। दस अश्वमेध यज्ञ किये। 

दशाश्वमेध घाट इसकी स्मृति का ही प्रतीक है। समुद्रगुप्त की दिग्विजय और चन्द्रगुप्त के पराक्रम के साथ सम्राट हर्षवर्धन ने संस्कृति को एक नई दिशा प्रदान की। 

गंगा के तट पर ही राष्ट्रकूट वंश के ध्रुव ने फिर से इन प्रदेशों को जीत कर गंगा को अपना राज चिन्ह बनाया। 

अबुलफजल, इब्नेबतूता और बर्नियर महर्षि चरक, बाणभट्ट प्रभृति विशेषज्ञ विद्वजनों को भी गंगा तट पर रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। 

गंगा के अंचल में ही आयुर्वेद का जन्म हुआ। 

शेरशाह ने माल बंदोबस्त का क्रम गंगा के किनारे पर ही चलाया। महानगर कोलकाता गंगा के किनारे ही विकसित हुआ। 

राजा राममोहनराय से लेकर दयानंद सरस्वती तक के नए सुधार आंदोलन यहीं पर शुरू हुए।
 
जब राम सेतु को आप सच मानते हैं तो उसी रामायण में यह जिक्र आता है कि भगीरथी ने ही गंगा की खोज की और गंगा को जमीन पर लाए थे। 

बता दें कि विष्णु पुराण के अन्दर एक अध्याय में भी भागीरथी का नाम लिया गया है और बोला गया है कि भागीरथी ही गंगा को जमीन पर लाए थे।

 वहीं बात अगर महाभारत की करें तो इसके अन्दर तो गंगा जी को पूरे एक पात्र रूप में ही पेश किया गया है।
 
गंगा की जो कहानी हमारे शास्त्र बताते हैं, वह शतप्रतिशत सच है। असल में भागीरथी ने वाकई में गंगा को जमीन पर लाने के लिए विशेष प्रयास किया था। 
 
राजा बलि बहुत ही पराक्रमी थे | ये माना जाता है कि राजा बलि भगवान विष्णु के परम भक्त थे| 

राजा बलि बहुत शक्तिशाली थे और एक बार उन्होंने स्वर्ग के राजा इंद्र को युद्ध के लिए ललकारा| 

राजा बलि की बड़ी सेना और पराक्रम को देखकर इंद्र देवता बड़े विचलित हुए, उनके मन में डर था कहीं राजा बलि स्वर्ग का राज्य ना हथिया ले | 

यही सोचकर इंद्र देवता भगवान विष्णु के पास मदद मांगने गए | 

तब भगवान विष्णु ने एक वामन ब्राह्मण का रूप धारण किया उस समय राजा बलि अपने राज्य की समृद्धि के लिए एक यज्ञ कर रहे थे | 

भगवान विष्णु वामन ब्राह्मण के वेश में बलि के पास पहुँचे और बलि से दान मांगा यदयपि राजा बलि जानते थे कि साक्षात भगवान विष्णु वामन के भेष में मेरे द्वार पर आए हैं लेकिन बलि अपने द्वार से किसी ब्राह्मण को खाली हाथ नहीं जाने देता था और वह भगवान विष्णु का परम भक्त भी था 
 
विंध्यगिरि के उत्तर भाग में इन्हें भगीरथी गंगा कहते हैं और दक्षिण में गौतमी गंगा (गोदावरी) कहते हैं।
 
तब वामन ब्राह्मण ने राजा बलि से तीन कदम जमीन मांगी| राजा बलि तैयार हो गए| 

जब वामन ब्राह्मण ने अपना पहला कदम उठाकर जमीन पर रखा तो उनका पैर इतना विशाल हो गया कि उन्होंने पूरी धरती नाप ली| 

दूसरे कदम में भगवान विष्णु रूपी वामन ब्राह्मण ने पूरा आकाश नाप लिया| 

अब वामन ब्राह्मण ने बलि से पूछा की तीसरा कदम कहाँ रखे? तब राजा बलि ने अपना सर नीचे करके कहा कि भगवन आप तीसरा पैर मेरे सर पे रख दीजिये| 

जैसे ही वामन ब्राह्मण ने बलि के सर पे पैर रखा, बलि जमीन के अंदर पाताल लोक में समा गया जहाँ असुरों का शासन था | 

माना जाता है कि जब भगवान विष्णु ने आकाश नापने के लिए पैर उठाया उस समय साक्षात ब्रह्मा जी ने आकाश में उनके पैर धुलाए और विशाल पांव धोकर सारा जल एक कमण्डल में एकत्रित कर लिया| 

यही जल को गंगा का नाम दिया गया और इसलिए गंगा को ब्रह्मा जी की पुत्री भी कहा गया है |
 
जैसे-जैसे गंगा नदी आगे बढ़ती है, उसमें कई नदियों मिलती जाती हैं । इसकी धारा वेगवती होती जाती है । 

वर्षा ऋतु में तो इसमें कई स्थानों पर बाढ़ आ जाती है । 

बाढ़ से फसलों और संपत्ति की भारी हानि होती है । अंत में यह बंगाल में घुसती है । 

यहाँ इसकी धारा सुस्त पड़ जाती है जिससे बेसिन का निर्माण होता है । फिर यह बंगाल की खाड़ी (समुद्र) में समा जाती है । 

इस प्रकार गंगा नदी की यात्रा समाप्त हो जाती है ।
 
पृथ्वी पर आकर उसे स्वर्ग बनाने वाली गंगा को भारतवासी अपनी मां की तरह पूजते हैं और प्यार करते हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने ठीक ही कहा है- 
 
कीरति, मणिति, मेलि सोई।
सुरसरि सम सब कर हितु होई।।
 
गंगा नदी का भारतीय संस्कृति में अन्यतम स्थान है । इसलिए इसे राष्ट्रीय नदी घोषित कर दिया गया है । 

गंगा की सफाई के लिए कुछ कार्ययोजनाएँ भी बनाई गई हैं । लोगों को इसमें सहभागिता करनी चाहिए । 

गंगा जल को प्रदूषण से मुक्त रखने के लिए उपयुक्त प्रयास करने चाहिए ।
 
चक्षुभद्रा सरिता ब्रह्मलोक से चलकर गन्धमादन के शिखरों पर गिरती हुई पूर्व दिशा में चली गयी है। 
अलकनंदा अनेक पर्वत-शिखरों को लांघती हुई, हेमकूट से गिरती हुई, दक्षिण में भारतवर्ष चली आयी। 

चक्षु नदी माल्यवान शिखर से गिरकर केतुमालवर्ष के मध्य से होकर पश्चिम में चली गई। 

भद्रा नदी गिरि शिखरों से गिरकर उत्तर कुरूपर्ष के मध्य से होकर, उत्तर दिशा में चली गयी।

गंगा की धरती पर उत्पत्ति  ( History of Holy River Ganga ) - Kumbh Mela
 
विंध्यगिरि के उत्तर भाग में इन्हें भगीरथी गंगा कहते हैं और दक्षिण में गौतमी गंगा (गोदावरी) कहते हैं।
 
गंगा नदी की लम्बाई करीब 1557 मील यानी 2506 km है | दी गंगेस उर्फ़ गंगा जो भारत के अलावा बांग्लादेश से होकर भी गुजरने वाली एशिया की एक बाध्यकारी नदी है। 
 
अन्य नदियों की तुलना में गंगा नदी में ऑक्सीजन का लेवल 25% ज्यादा है
 
गंगा पानी में बैक्टीरिया से लड़ने की विशेष शक्ति होती है
 
गंगा का पानी कभी सड़ता नहीं है ,हिन्दू धर्म में गंगा नदी को देवी की तरह पूजा जाता है | गंगा का उद्गम गंगोत्री से होता है जो हिमालय के दक्षिण में है |
 
गंगा का जल शुद्ध माना जाता है |  दिल्ली के रिसर्च सेंटर के एक शोध में पाया गया कि गंगा के पानी में मच्छर पैदा नहीं हो सकते |  

एक ब्रिटिश प्रयोगशाला में पाया गया कि अगर गंगा के पानी में बैक्टीरिया मिला दिए जाएँ तो सारे बैक्टीरिया केवल 3 घंटे के अंदर मर जाते हैं

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